शिक्षा विभाग : गड़बड़ी अनंत गड़बड़ी कथा अनंता

शिक्षा विभाग : गड़बड़ी अनंत गड़बड़ी कथा अनंता

विद्रोही बोल

धीरेन्द्र चौबे

सरकार शिक्षा में व्यापक सुधार के लिये पानी की तरह पैसे बहा रही है लेकिन धरातल पर परिणाम शून्य है। इसका सबसे बड़ा कारण शिक्षा विभाग में भारी गड़बड़ी है। गड़बड़ी अनंत है और गड़बड़ी कथा भी अनंत है। गढ़वा जिला इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। गढ़वा जिले में शिक्षा विभाग में कागज पर सारे आंकड़े फिट हैं, लेकिन धरातल पर अल्प मात्र भी बदलाव नहीं है।

बात सरकार की ओर से आवंटित धन राशि से स्कूलों के विकास की हो या छात्र-छात्राओं के बौद्धिक विकास की दोनों क्षेत्र में कोई बदलाव नजर नहीं आता। स्कूलों का विकास और छात्र-छात्राओं के बौद्धिक विकास की ओर किसी का ध्यान नहीं है। अलबत्ता जिले में विभाग के टॉप पदाधिकारी का सारा फोकस सरकार की ओर से स्कूलों के विकास के लिये आवंटित धन राशि को मिल बांट कर सुरक्षित तरीके से ठिकाने लगाने पर है। इसके अनगिनत उदाहरण हैं जो नित्य सुर्खियां बन रही हैं।

कमजोर तबके के छात्र-छात्राओं की स्कूलों में हाजिरी के साथ-साथ उनके लिये अत्यंत उपयोगी मध्याह्न भोजन में कीड़ा मिलना भोजन की गुणवत्ता की पोल खोलने के लिये पर्याप्त है। साथ ही इससे यह भी साबित होता है कि एमडीएम की राशि का किस कदर घोटाला किया जा रहा है। हाल के दिनों में पीएमश्री हाईस्कूल चित्तविश्राम में मध्याह्न भोजन में कीड़े मिलने पर स्कूल के छात्र-छात्राओं ने विरोध किया। मामले में अब तक कार्रवाई नहीं होना विभाग की अकर्मण्यता को दर्शाता है।

गढ़वा जिले में डेप्यूटेशन का खेल बड़ा निराला है। पैसा फेकों मनपसंद स्कूल में डेप्यूटेशन कराकर आराम करो। जिन शिक्षकों की पैरवी नहीं है उनकी खातिर 6 माह तक डेप्यूटेशन अवधि के लिये लगभग 50-60 हजार रूपये निर्धारित है। जिनकी पैरवी है उन्हें कम पैसे में लंबी अवधि तक डेप्यूटेशन की सुविधा प्राप्त है। सर्वविदित है कि बालकों के लिये अनिवार्य और निःशुल्क शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 (आरटीई) के तहत छात्र शिक्षक का अनुपात बनाये रखने के लिये शिक्षकों का डेप्यूटेशन अवैधानिक है। यह जानते हुये भी बेशर्मी से आरटीई एक्ट यानी कानून को ताक पर रखकर डेप्यूटेशन का खेल जारी है। किसी स्तर के जांच पड़ताल से डेप्यूटेशन के खेल से पर्दा उठने वाला नहीं है।

डेप्यूटेड शिक्षक और अफसर दोनों के सिर्फ नार्को टेस्ट से ही इस खेल पर से पर्दा उठ सकता है। गढ़वा जिले में शिक्षा विभाग में टेंडर के क्या कहने, जब जी में आए बस सरकारी पैसे को ठिकाने लगाने के लिये टेबल टेंडर कर मनमाने रेट का निर्धारण आम बात है। सिर्फ उदाहरण के लिये विगत 1 फरवरी 2025 को गढ़वा जिले में शिक्षा विभाग की समिति की ओर से आवासीय स्कूलों में सब्जी सप्लाई हेतु चयनित निविदादाताओं के लिये जनवरी से मार्च तक का सब्जी का रेट निर्धारण चौकाने वाला है।

उक्त समिति ने टमाटर का रेट 29 रुपये प्रति किलो, फूलगोभी का रेट 24 रुपये प्रति किलो एवं सफेद आलू का रेट 20 रुपये प्रति किलो निर्धारित किया था। सर्वविदित है कि जनवरी से मार्च तक टमाटर और फूलगोभी जिले की लगभग सभी मंडियों में 3 से लेकर 10 रुपये और आलू का 15 से 17 रुपये रेट रहा है। सब्जियों का मनमाने तरीके से रेट का निर्धारण शिक्षा विभाग में नीचे से उपर तक व्याप्त कमीशनखोरी घोटाले की बानगी मात्र है। 

वैसे तो शिक्षा विभाग में घोटालों के कई उदाहरण हैं। भवन निर्माण, किचेन शेड निर्माण, शौचालय निर्माण, विकास फंड, पीएमश्री फंड में तो बड़े पैमाने पर घोटाला हुआ है। घोटाले का सारा खेल प्री प्लान से निरंतर जारी है। मामले का उद्भेदन होने पर जांच करने वाले अधिकारी कमीशन खाकर ईमान बेच देते हैं। सवाल उठता है कि जब जिले में नीचे से उपर तक रक्षक ही भक्षक बन बैठा है तो कैसे होगा शिक्षा में गुणात्मक सुधार और विकास? इन सब चीजों के पीछे ड्यूटी के प्रति एकॉन्टिबलिटी का फिक्स नहीं होना सबसे बड़ा कारण है। शिक्षा विभाग के अधिकारी से लेकर शिक्षक तक हरेक गड़बड़ी के लिये एक दूसरे पर फेंका फेंकी कर मामले को आया राम गया राम कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं। किसी पर ठोस कानूनी कार्रवाई नहीं होती है। बहुत हुआ तो आई वॉश के लिये सिर्फ सस्पेंशन की कार्रवाई होती है, जो मौजूदा समय में नाकाफी है। वित्तीय मामलों में सक्षम लोगों के नार्को टेस्ट से ही घोटाले पर अंकुश लगना संभव है।

दूसरा कारण शिक्षा विभाग के वेतन से अपना और अपने परिवार का भरण पोषण करने वाले अधिकारी से लेकर शिक्षक तक किसी के बेटे बेटियां सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ते। सब के बेटे बेटियां सब के सब नर्सरी से लेकर उच्च शिक्षा तक कॉन्वेंट में ग्रहण करते हैं, गांवों और शहरों के समृद्ध व सक्षम लोगों के बेटे बेटियां भी कॉन्वेंट में ही पढ़ते हैं। सरकारी स्कूलों में गांवों एवं शहरों में रहने वाले कमजोर तबके के बच्चे बच्चियां शिक्षा प्राप्त करते हैं। इसलिये शिक्षा विभाग के अधिकारी से लेकर शिक्षक सरकारी स्कूलों को चारागाह समझ कर सरकारी पैसे को नर्म चारा समझ कर चट कर जा रहे हैं।

सरकारी स्कूल में बच्चों के नहीं पढ़ने के कारण समाज के समृद्ध सशक्त जागरूक लोगों का भी स्कूलों के विकास के साथ-साथ छात्र-छात्राओं के बौद्धिक विकास की ओर ध्यान नहीं देना है। शिक्षा में सुधार के लिये विभाग में वित्तीय गड़बड़ी पर अंकुश लगाने के लिये वित्तीय मामलों से जुड़े लोगों के नार्को टेस्ट के साथ-साथ शिक्षा विभाग के अधिकारी से लेकर शिक्षक तक के बेटे बेटियों के लिये सरकारी स्कूलों में शिक्षा अनिवार्य करने संबंधी कानून की आवश्यकता है।