आपातकाल के पचास साल, लोकतंत्र की सबसे काली रात की स्मृति

आपातकाल के पचास साल, लोकतंत्र की सबसे काली रात की स्मृति

विद्रोही बोल

धीरेन्द्र चौबे

ज से ठीक पचास वर्ष पूर्व, 25 जून 1975 की वह रात भारतीय लोकतंत्र की सबसे काली रात मानी जाती है। यह वह दिन था जब संविधान का गला घोंटकर एक स्वतंत्र राष्ट्र की जनता से उसकी सबसे कीमती पूंजी उसकी आजादी छीन ली गई थी। देश की संसद और संविधान को ताक पर रखकर आपातकाल लागू किया गया, यानी देश एक झटके में लोकतंत्र से तानाशाही की ओर फिसल गया। प्रेस की आजादी, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, नागरिक अधिकार और राजनीतिक गतिविधियों पर शिकंजा कस दिया गया। अभिव्यक्ति की आजादी छीन ली गई। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आंतरिक संकट का हवाला देकर राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत देश में आपातकाल लागू करवाया।

 दरअसल, यह आंतरिक संकट सत्ता की उनकी व्यक्तिगत चुनौती थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उनके चुनाव को अवैध घोषित कर दिया था, और उन्हें छह वर्षों के लिए चुनाव लड़ने से वंचित कर दिया गया था। इसके विरोध में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में देश भर में लोकतांत्रिक आंदोलन तेज हो गया था। सत्ता की पकड़ ढीली पड़ती देख इंदिरा गांधी ने अपनी कुर्सी बचाने के लिए आपातकाल का सहारा लिया। उस रात की घोषणा के बाद जैसे देश पर सन्नाटा छा गया। लोकतंत्र की नींव पर खड़ा यह राष्ट्र अचानक एक ऐसे शासन के हवाले कर दिया गया जिसमें बोलने, लिखने और सोचने की भी इजाजत नहीं थी। प्रेस की स्वतंत्रता समाप्त कर दी गई। अखबारों को खबरें छापने से पहले सरकारी अनुमति लेनी पड़ती थी। बड़े अखबारों के पन्ने खाली छपते थे या फिर सरकारी भोंपू की तरह इस्तेमाल होते थे।

हजारों की संख्या में राजनीतिक विरोधियों को बिना किसी मुकदमे के जेलों में डाल दिया गया। इनमें जयप्रकाश नारायण, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी, जॉर्ज फर्नांडीज जैसे प्रमुख नेता शामिल थे। छात्र संगठनों, मजदूर यूनियनों, बुद्धिजीवियों और पत्रकारों पर विशेष नजर रखी गई। जो चुप रहा वह सुरक्षित रहा, जो बोला वह देशद्रोही करार दे दिया गया। अदालतें भी दबाव में आकर मौन साध गईं। सुप्रीम कोर्ट तक ने यह स्वीकार कर लिया कि आपातकाल में नागरिक के पास जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार भी नहीं है।

झारखंड में विशेषकर पलामू में भी आपातकाल का व्यापक असर था। पलामू की राजनीति के भीष्म पितामह इंदर सिंह नामधारी, शिक्षा जगत के पुरोधा प्रो एससी मिश्रा, प्रो केके मिश्रा समेत कई दिग्गज राष्ट्रवादी और समाजवादी नेता, कार्यकर्ता, प्रोफेसर और पत्रकार और छात्र नेता गिरफ्तार कर जेलों में बंद कर दिए गए। मतलब विभिन्न क्षेत्रों में सामाजिक कार्य कर रहे लोगों को मीसा जैसे काले कानून के अंतर्गत जेलों में ठूंस दिया गया। पुलिसिया राज चरम पर पहुंच गया था। यह दौर वैसे लोगों के लिए विशेष रूप से खतरनाक था जो बोलते थे, लिखते थे या सवाल उठाते थे।

इसी दौरान नसबंदी अभियान को लेकर भय और त्रासदी का एक और अध्याय जोड़ा गया। सरकारी मशीनरी ने जनसंख्या नियंत्रण के नाम पर गरीब और असहाय लोगों को पकड़कर जबरिया नसबंदी कर दी। इसमें सबसे अधिक शिकार कमजोर वर्ग के लोग बने। जगह-जगह शिविर लगाए गए और एक तरह से नसबंदी को एक प्रदर्शन बना दिया गया। जो अफसर अधिक नसबंदी कराता, वह पदोन्नति पाता। इस क्रूरता ने सत्ता की अमानवीयता को उजागर कर दिया।

आपातकाल में देश के साथ बहुत धोखा हुआ। उस दौर में संविधान के साथ काफी जोर जबर्दस्ती भी की गई। यहां उल्लेख करना जरूरी है कि 25 जून 1975 को लागू आपातकाल हुआ था। इसी बीच 15 मार्च 1976 को पांचवीं लोकसभा कार्यकाल खत्म हो गया था। लोकसभा का कार्यकाल समाप्त होने के बाद 2 नवम्बर 1976 को असंवैधानिक विधि से 42वें संशोधन में 'सेक्युलर' शब्द को संविधान की मूल आत्मा 'प्रस्तावना' में जोड़ दिया गया। सवाल उठता है कि जब लोकसभा का कार्यकाल ही खत्म हो गया तो संविधान संशोधन के लिए वोट किसने दिया? जिसने वोट किया क्या उन्हें वोट करने का अधिकार था? सत्ता के संरक्षण में हुए तमाम पापकर्म और धत्कर्मो से देश का पवित्र संविधान लहूलुहान हुआ लेकिन सत्ता द्वारा देश में लोकतंत्र की हत्या करने की योजना पूर्ण नहीं हो सकी।

मार्च 1977 में जब आम चुनाव कराए गए तो देश की जनता ने इस दमन का करारा जवाब दिया। उत्तर भारत में कांग्रेस पार्टी पूरी तरह साफ हो गई। जनता पार्टी ने स्पष्ट बहुमत से सरकार बनाई और लोकतंत्र की वापसी हुई। यह चुनाव भारतीय राजनीति का एक निर्णायक मोड़ था, जब जनता ने यह स्पष्ट कर दिया कि सत्ता चाहे कितनी भी ताकतवर क्यों न हो, उसका अहंकार टिक नहीं सकता। इंदिरा गांधी स्वयं भी रायबरेली में चुनाव हार गईं।

आज, 25 जून 2025 को जब हम आपातकाल की पचासवीं वर्षगांठ पर पीछे मुड़कर देखते हैं, तो यह केवल इतिहास का एक अध्याय नहीं, बल्कि चेतावनी है। यह हमें याद दिलाता है कि लोकतंत्र एक स्थायी स्थिति नहीं है, बल्कि उसे हर दिन, हर क्षण, हर पीढ़ी को संजोना पड़ता है। आपातकाल का स्मरण उन हजारों नायकों को नमन, जिन्होंने जेलों में सड़कर, यातनाएं सहकर और अपने परिवार का सुख त्यागकर लोकतंत्र की लौ जलाए रखा।