झारखंड आंदोलन की स्मृति के अमिट हस्ताक्षर थे शिबू सोरेन

झारखंड आंदोलन की स्मृति के अमिट हस्ताक्षर थे शिबू सोरेन

धीरेन्द्र चौबे

मांड़ भात और साग भात खाकर जीवन पर्यंत जल जंगल जमीन को बचाने झारखंड अलग राज्य बनाने और महाजनी प्रथा व बंधुआ मजदूरी को खत्म करने के लिए संघर्ष करने वाला झारखंड की माटी का लाल आज पंचतत्व में विलीन हो गया। जिसने अपनी कर्मठता से दिशोम गुरु की उपाधि हासिल की, अपने उस लाल शिबू सोरेन के स्वर्गारोहण पर पूरा झारखंड रो रहा है। शिबू सोरेन सिर्फ एक व्यक्ति का नाम नहीं, बल्कि यह नाम झारखंड आंदोलन की स्मृति का एक अमिट हस्ताक्षर है।

झारखंड की माटी, उसकी संस्कृति, सभ्यता और संघर्ष की जब भी चर्चा होगी, दिशोम गुरु शिबू सोरेन का नाम स्वर्णाक्षरों में लिखा जाएगा। वे सिर्फ एक राजनेता नहीं, बल्कि झारखंड आंदोलन की चेतना के प्रतीक, आदिवासी अस्मिता के प्रहरी और शोषण के विरुद्ध एक जीवंत प्रतिरोध थे। उनका जीवन महाजनी प्रथा, बंधुआ मजदूरी, जंगल की लूट और आदिवासी समाज के दमन के खिलाफ एक सतत संघर्ष की कहानी है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा बनेगी।

महाजनों द्वारा पिता सोबरन सोरेन की हत्या जिस निजी पीड़ा ने शिबू सोरेन को आंदोलित किया वह सिर्फ एक घटना नहीं थी, बल्कि उस व्यवस्था की पहचान थी जो आदिवासियों के अस्तित्व पर हमला कर रही थी। जिसे मुक्ति के लिए उन्होंने युवावस्था से ही महाजनी प्रथा, बंधुआ मजदूरी और जमीन हथियाने की कुप्रथाओं के विरुद्ध जनचेतना जगानी शुरू की।

उन्होंने सत्तर के दशक में संथाल परगना में संयोग समितियां बनाकर महाजनों के खिलाफ जोरदार अभियान चलाया। गरीब आदिवासियों की जमीन को वापस दिलाने के लिए कई बार स्वयं खेतों में हल चलाया, गांव-गांव घूमकर जनसभा की, जेल भी गए, लेकिन कभी झुके नहीं। उनका यह जुझारू संघर्ष ही बाद में झारखंड मुक्ति मोर्चा के गठन का आधार बना।

शिबू सोरेन ने उस दौर में आवाज़ उठाई, जब आदिवासियों को इंसान मानना भी सत्ता और व्यवस्था के लिए एक 'झंझट' था। झारखंड के गांव-गांव में महाजनों द्वारा आदिवासियों की ज़मीन और श्रम को लूटा जा रहा था, उन्हें बंधुआ बना कर पीढ़ियों तक गुलामी की जंजीरों में जकड़ा जा रहा था। दिशोम गुरु ने न सिर्फ इसके खिलाफ आवाज़ बुलंद की, बल्कि जमीन पर संघर्ष की वो मशाल जलाई, जिसने पूरे राज्य को आंदोलित कर दिया।

उनका आंदोलन महज झारखंड के गठन तक सीमित नहीं था, बल्कि झारखंडियत की आत्मा जल, जंगल, जमीन और संस्कृति की रक्षा तक फैला हुआ था। उन्होंने आदिवासी पहचान को मिटाने की हर कोशिश का विरोध किया और यह सुनिश्चित किया कि झारखंडी समाज की अलग सांस्कृतिक, भाषायी और सामाजिक अस्मिता को राजनीतिक मंचों पर स्वीकृति मिले।

उनकी सबसे ऐतिहासिक भूमिका झारखंड राज्य के गठन में रही। 15 नवंबर 2000 को जब झारखंड एक पृथक राज्य बना, तब यह सिर्फ एक भौगोलिक उपलब्धि नहीं थी, बल्कि दशकों के संघर्ष और बलिदान की परिणति थी। शिबू सोरेन इस पूरे आंदोलन के प्रमुख सूत्रधार रहे। दिशोम गुरु ने संसदीय राजनीति में भी प्रवेश किया, लेकिन आंदोलन की आत्मा को कभी खोने नहीं दिया।

उन्होंने विधायक, सांसद, केंद्रीय मंत्री और मुख्यमंत्री पद को सुशोभित किया। शिबू सोरेन का जीवन सत्ता के गलियारों में आराम की कुर्सी नहीं, बल्कि संघर्ष की आंच से तप कर खड़ा हुआ नेतृत्व था। उन्होंने हमेशा अपनी बात बेबाकी से रखी चाहे वह दिल्ली के मंच हों या झारखंड के गांव देहात और यहां के जंगल।

उनके नेतृत्व में झारखंड ने कई राजनीतिक उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन उनकी ईमानदारी और प्रतिबद्धता पर कभी प्रश्नचिह्न नहीं लगा। आज जब राजनीति सुविधा की भाषा बोलती है, तब दिशोम गुरु जैसे नेता की विरासत हमें यह याद दिलाती है कि राजनीति का मूल धर्म सेवा और संघर्ष है। झारखंड को एक पहचान देने वाले, इसकी संस्कृति और माटी की रक्षा के लिए जीवन भर लड़ने वाले सच्चे सपूत को शत-शत नमन।