थम गई मजदूरों की आवाज, अस्त हुआ मजदूर राजनीति का ध्रुवतारा

मजदूर राजनीति के विराट पुरुष थे ददई दूबे
• विश्रामपुर विधानसभा क्षेत्र से चार बार के विधायक और धनबाद से एक बार लोकसभा सांसद बिहार में राबड़ी देवी की सरकार और झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार में मंत्री रहे चंद्रशेखर दूबे उर्फ ददई दूबे से जुड़ी खास बातें
- बिहार-झारखंड की राजनीति के दिग्गज नेता पूर्व मंत्री चंद्रशेखर दूबे उर्फ ददई दूबे जीवन पर्यंत मजदूरों के हक और हुकूक को लेकर संघर्ष किया
- धुन के पक्के, कड़क मिजाज, बेहद जिद्दी स्वभाव के ददई दूबे जो ठान लेते थे उसे पूरा कर के ही दम लेते थे।
- विधायक और सांसद मद से कभी कमीशन नहीं लिया और न तो किसी अफसर को कमीशन लेने दिया।
- अंतिम पंक्ति से लेकर अग्र पंक्ति के कार्यकर्ता के मान, सम्मान और स्वाभिमान की रक्षा के लिए हर स्तर की लड़ाई लड़े।
- मजदूर के हक के लिए किसी से भी शक्तिशाली लोगों से भी लड़ते भिड़ते रहे।
- भ्रष्ट अधिकारी, बिगड़ैल नौकरशाहों को उन्होंने सदैव उनकी औकात बताई।
- पार्टी लाइन से हटकर सही को सही और गलत को गलत कहा।
- पार्टी के शीर्ष नेतृत्व से हुई गलतियों पर शीर्ष नेतृत्व को भी कठघरे में खड़ा करने से नहीं चूके।
- जीवन में कभी राजनीतिक सौदेबाजी नहीं की, मान सम्मान और स्वाभिमान से कभी समझौता नहीं किया।
- जो कहा उसे पूरा किया, जिस बात को मनवाने के अड़े उसे मनवा कर ही मानें।
- जिसका विरोध किया उसका ताल ठोककर विरोध किया, नाम और उसके पद से भयभीत नहीं हुए।
- नफा नुकसान से बेपरवाह होकर राजनीति की, जिसे भी जवाब देना पड़ा उसे मुंह पर पलट कर जवाब दिया।
धीरेन्द्र चौबे
दशकों तक जो आवाज मजदूरों के हक में सड़क से लेकर सदन तक गूंजती रही वह अचानक थम गई। जिसकी एक आवाज पर मजदूर खदान से लेकर कारखाना तक गोलबंद हो जाते थे, भारतीय नभ मंडल में देदीप्यमान मजदूर राजनीति का वह ध्रुवतारा गत गुरुवार को अस्त हो गया। बात देश में मजदूर राजनीति के विराट पुरुष चंद्रशेखर दूबे उर्फ ददई दूबे की हो रही है। विधाता के दिए दायित्वों और कर्तव्यों को पूर्ण करने के बाद वे इस धराधाम से भौतिक शरीर को त्याग कर अब ब्रह्मलीन हो गए हैं।
नई दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में अंतिम सांस लेने वाले ददई दूबे का जीवन बिहार और झारखंड की राजनीति में संघर्ष, साहस और स्वाभिमान की मिसाल रहा है। विश्रामपुर विधानसभा क्षेत्र से चार बार विधायक और धनबाद से एक बार लोकसभा सांसद रहे ददई दूबे न सिर्फ सियासी ताकत थे, बल्कि मज़दूरों और आम आदमी के हक की बुलंद आवाज भी थे।
राजनीति उनके लिए सत्ता की सीढ़ी नहीं, बल्कि संघर्ष की जमीन थी। जीवन भर मजदूरों के हक-हुकूक के लिए वे सड़क से सदन तक लड़ते रहे। चाहे बिहार में राबड़ी देवी की सरकार रही हो या झारखंड में हेमंत सोरेन की, ददई दूबे ने सरकार में रहते मंत्री पद पर रहते हुए भी मजदूरों एवं आम जनता के हितों के साथ कभी समझौता नहीं किया। उन्होंने बड़ी से बड़ी सत्ता से टकरा कर भी मजदूरों की आवाज को कमजोर नहीं होने दिया।
ददई दूबे अपने कड़क मिजाज और जिद्दी स्वभाव के लिए जाने जाते थे। वे जो ठान लेते, उसे पूरा करके ही दम लेते थे। उन्होंने कभी विधायक या सांसद निधि से कमीशन नहीं लिया और न ही किसी अफसर को लेने दिया। भ्रष्ट अफसरों और बिगड़ैल नौकरशाहों को उनकी औकात बताना वे बखूबी जानते थे। राजनीतिक सौदेबाजी उनके स्वभाव में नहीं थी। वह अक्सर कहा करते थे "सत्ता स्वाभिमान से बड़ी नहीं होती।"
ददई दूबे उन गिने-चुने नेताओं में से थे जो अंतिम पंक्ति के कार्यकर्ता हों या अग्रिम पंक्ति के सभी को समान यानी समभाव से देखते थे, सबके मान-सम्मान और स्वाभिमान के लिए भी लड़ते थे। वे पार्टी लाइन से ऊपर उठकर सच को सच और झूठ को झूठ कहने की हिम्मत रखते थे। कई मौकों पर पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की गलती पर उन्हें कठघरे में खड़ा करने से भी नहीं चूके। अपने सिद्धांतों के आगे वे किसी नाम या पद से भयभीत नहीं होते थे।
प्रतिबद्धता और परिणाम, उनकी राजनीति का मूलमंत्र था। जनता से किये वायदों को पूरा करने के लिए वे अड़ जाते थे। उनके सामने में जो आया, उसका डंके की चोट पर विरोध किया। वे लाभ-हानि, नफा-नुकसान के गणित से परे होकर राजनीति करते थे और जिसे जवाब देना हो, उसे खुलेआम ललकार भरे लहजे में मुंह पर, तीखे लहजे में जवाब देते थे।
ददई दूबे अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनका प्रेरणास्पद जीवन हमें यह बताता है ईमानदारी, संघर्ष, और स्वाभिमान की राजनीति आज भी संभव है, बशर्ते नेता के पास हिम्मत हो, नीति स्पष्ट हो, नीयत साफ हो और जनता के प्रति सच्ची प्रतिबद्धता हो। उनकी राजनीतिक यात्रा राजनीति में नैतिकता, मज़दूरों की चिंता और सत्ता के विरुद्ध जनहित की लड़ाई की प्रेरक गाथा है। ददई दूबे अब इतिहास बन गए हैं, लेकिन उनका व्यक्तित्व पीढ़ियों को रास्ता दिखाता रहेगा।